शनिवार, 3 मई 2025

अनुभूतियाँ 182/69

 अनुभूतियाँ 182/69

:1:
नाम तुम्हारा ले कर कोई
ढोंगी बाबा भरमाता है ।
शायद उसको पता नहीं है
मेरा तुम से क्या नाता है ।

:2:
रात भले हो जितनी लम्बी
सूरज को फिर उगना ही है।
आशा की किरणें उतरेंगी
घना अँधेरा छँटना ही है ।

:3:
युद्ध स्वयं ही लड़ना पड़ता
अपने बल पर, अपने दम पर
जीत उसी को हासिल होती
जो रहता है सत्य, धरम पर ।

मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

अनुभूतियाँ 181/68

 अनुभूतियाँ 181/68


721

बार बार क्या कहना है अब

समझाना तुमको मुश्किल है

अपनी ज़िद में दिल ये तुम्हारा

सच सुनने के नाक़ाबिल है ।

722

चाँद सितारे दर्या झरना

कहते सबमे झलक उसी की

जिस दिन दिल ने मान लिया तो

फिर न सुनेगा बात किसी की

723

कौन यहाँ है जो न दुखी है

किसके अपने नहीं मसाइल

आशा की जब एक किरन हो

दूर कहाँ फिर रहता साहिल

724

रोज रोज की किचकिच किचकिच

कर देते हैं रिश्ते बोझिल

खुशबू फैले कोने कोने

समझदार जब होते दो दिल


-आनन्द पाठक-

शुक्रवार, 4 अप्रैल 2025

ग़ज़ल 438 [12- G] : हमारी दास्ताँ में ही--

 ग़ज़ल 438 [ 12-]

1222---1222---1222---122


हमारी दास्ताँ में ही तुम्हारी दास्ताँ है

हमारी ग़म बयानी में तुम्हारा ग़म बयाँ है ।


गुजरने को गुज़र जाता समय चाहे भी जैसा हो

मगर हर बार दिल पर छोड़ जाता इक निशाँ है ।


सभी को देखता है वह हिक़ारत की नज़र से

अना में मुबतिला है आजकल वो बदगुमाँ है ।


मिटाना जब नहीं हस्ती मुहब्बत की गली में

तो क्यों आते हो इस जानिब अगर दिल नातवाँ है।


जो आया है उसे जाना ही होगा एक दिन तो

यहाँ पर कौन है ऐसा जो उम्र-ए-जाविदाँ है ।


सभी हैं वक़्त के मारे, सभी हैं ग़मजदा भी 

मगर उम्मीद की दुनिया अभी क़ायम जवाँ है।


जमाने भर का दर्द-ओ-ग़म लिए फिरते हो ’आनन’

तुम्हारा खुद का दर्द-ओ-ग़म कही क्या कम गिराँ है।


-आनन्द पाठक-

कम गिराँ है = कम भारी है, कम बोझिल है